بسم الله
الرحمن الرحيم
बिस्मिल्लाहिर
रहमानिर रहीम
अल्लाह के नाम से आरम्भ करता हूँ जो बड़ा मेहरबान अत्यंत दयालु है
पवित्र महीना
माहे रमज़ानुल
मुबारक
और उसके रोज़े
लेखक
अब्दुल्लाह
अल्काफ़ी अलमुहम्मदी
सहकारी कार्यालय निमंत्रण मार्गदर्शन एवं
समुदाय धार्मिक जागरूकता प्रान्त तैमा (तबूक)
मंत्रालय इस्लामी कार्य
और मार्गदर्शन सऊदी अरब
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بسم الله
الرحمن الرحيم
बिस्मिल्लाहिर रहमानिर
रहीम
अल्लाह के नाम से आरम्भ
करता हूँ जो बड़ा मेहरबान अत्यंत दयालु है
الحمد لله
رب العالمين، والصلاة والسلام على نبينا محمد خاتم النبيين، وعلى آله وأزواجه وأهل
بيته وأصحابه أجمعين، ومن تبعهم بإحسان إلى يوم الدين.
"अलहम्दो लिल्लाहे रब्बिल आलमीन, वस्सलातो वस्सलामो अला नबीयेना मुहम्मदिन खातेमिन नबीयीन व अला
आलेही व अज़्वाजेहि व अहले बैतेही व असहाबेहि आजमईन, व मन तबेअहुम
बे एहसानिन एला यौमिद्दीन"
सभी प्रकार की स्तुति व प्रशंशा एकमात्र अल्लाह के लिए, जो निर्माता और प्रजापति व पालनहार है संसारों का। और दरूद और
शांति हो हमारे पैगंबर मुहम्मद पर, जो पैग़ंबरों के शेष हैं। उन के परिवार उन की पत्नियों
उनके घर वालों तथा उन के साथियों पर भी, और उन पर भी जो न्याय के दिन तक धर्मार्थ के
साथ इन के मार्ग पर जीवन यापन करते रहे।
रमज़ान
और
रोज़ा
इस्लामी वर्ष का ९वां महीना "रमज़ान" कहलाता है। इस्लामी
प्रथा के अनुसार प्रति वर्ष इस महीने के संपूर्ण दिनों में रोज़ा (व्रत अथवा उपवास)
रहा जाता है। आइये जानते हैं की इस धार्मिक रीति को निभाना इस्लाम में कितना महत्त्व
पूर्ण माना गया है।
रोज़ा इस्लाम का एक अटूट अंग है
रोज़ा इस्लाम के पाँच आधारिक स्तंभ में से पाँचवाँ स्तंभ है।
जिन में से किसी एक का इंकार भी इस्लाम धर्म को त्याग देना है। रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु
अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया:
عن ابن عمر
رضي الله عنه قال: سمعت رسول الله صلى الله عليه وسلم يقول: "بني الإسلام على
خمس شهادة أن لا إله إلا الله وأن محمدا رسول الله وإقام الصلاة وإيتاء الزكاة وحج
البيت وصوم رمضان" (متفق عليه)
अर्थ: "हज़रत इब्न उमर (रज़ियल्लाहु अन्हुमा) कहते हैं, की मैं ने नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्ल्म) से कहते हुए सुना की:
"इस्लाम की बुनियाद पांच (५) बातों पर रखी गई है: यह गवाही देना की अल्लाह तआला के अतिरिक्त कोर्इ सच्चा पूज्य नहीं। और मुहम्मद
सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम अल्लाह के संदेश्वाहक हैं। और नमाज़ क़ायम करना। और ज़कात अदा
करना। और बैतुल्लाह (मक्कह में खाना काबा) का हज्ज करना। और रमजान में व्रत रखना",
(बुखारी, मुस्लिम)
रोज़ा एक धार्मिक कर्तव्य है
रमज़ान के महीने में रोज़ा रखना मुसलमानों पर फ़र्ज़ (ज़रूरी) है।
इस का इंकार करना इस्लाम को त्याग देना, और मानते
हुए भी काहली सुस्ती से न रखना महा पाप है। अल्लाह तआला ने पवित्र क़ुरआन में इस का
उल्लेख किया:
﴿يَا
أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا كُتِبَ عَلَيْكُمُ الصِّيَامُ كَمَا كُتِبَ عَلَى
الَّذِينَ مِن قَبْلِكُمْ لَعَلَّكُمْ تَتَّقُونَ﴾ سورة البقرة: ١٨٣
अर्थ: ऐ ईमानदारों रोज़ा रखना जिस तरह तुम से पहले के लोगों
पर फर्ज़ था उसी तरह तुम पर भी फर्ज़ किया गया ताकि तुम उस की वजह से बहुत से
गुनाहों से बचो। (सूरह अल-बक़रह: 183)
रोज़ा के लिए रमज़ान ही क्यों?
क्यों की रमजान के महीने में पवित्र क़ुरआन उतारा गया अल्लाह तआला ने फ़रमाया:
﴿شَهْرُ
رَمَضَانَ الَّذِي أُنزِلَ فِيهِ الْقُرْآنُ هُدًى لِّلنَّاسِ وَبَيِّنَاتٍ مِّنَ
الْهُدَىٰ وَالْفُرْقَانِ﴾ (سورة البقرة: ١٨5)
अर्थ: रमज़ान का महीना ही है जिस में क़ुरआन नाज़िल किया गया
जो लोगों का रहनुमा है और उसमें रहनुमाई और (हक़ व बातिल के) तमीज़ की रौशन
निशानियाँ हैं। (सूरह अल-बक़रह: 185)
इसी महीने में लैलतुलक़द्र (शब् ए क़द्र अथवा मान्यता और गुणों
वाली रात) आती है। जो हज़ार महीने की रातों पर भरी है। अल्लाह तआला ने फ़रमाया:
﴿لَيْلَةُ
الْقَدْرِ خَيْرٌ مِّنْ أَلْفِ شَهْرٍ * تَنَزَّلُ الْمَلَائِكَةُ
وَالرُّوحُ فِيهَا بِإِذْنِ رَبِّهِم مِّن كُلِّ أَمْرٍ * سَلَامٌ هِيَ حَتَّىٰ مَطْلَعِ
الْفَجْرِ﴾(سورة
القدر)
अर्थ: शबे क़द्र (मरतबा और अमल में) हज़ार महीनो से बेहतर है। इस (रात) में फ़रिश्ते (ईश्वर दूत)
और जिबरील (साल भर की) हर बात का हुक्म लेकर अपने परवरदिगार के हुक्म से नाज़िल
होते हैं। ये रात सुबह के तुलूअ होने तक (अज़सरतापा)
सलामती (शांतिपूर्ण) है। (सूरह अल-क़द्र)
इस महीने की इसी पवित्रता के कारण रमजान में पवित्र कार्य रोज़ा
का आदेश आया। जबकि अन्य और अधिक कारण हो सकते हैं जिन को अल्लाह सुब्हानहु स्थिक जानता
है।
रोज़ा रखना किस पर फ़र्ज़ है?
रमज़ान महीने का रोज़ा पुरुष महिला युवा वयसक बृद्ध स्वतन्त्र
आज़ाद अथवा बंदी या ग़ुलाम सभी मुसलमानों पर फ़र्ज़ है। हाँ यदि कोई बीमार है। अथवा कोई
सफर में है। तो स्वस्थ होने या यात्रा समाप्त होने के बाद छूटे हुए रोज़े रखने हुंगे।
अल्लाह तआला ने फ़रमाया:
﴿فَمَن
شَهِدَ مِنكُمُ الشَّهْرَ
فَلْيَصُمْهُ وَمَن كَانَ مَرِيضًا أَوْ عَلَىٰ سَفَرٍ فَعِدَّةٌ مِّنْ أَيَّامٍ
أُخَرَ يُرِيدُ اللَّـهُ بِكُمُ الْيُسْرَ وَلَا يُرِيدُ بِكُمُ الْعُسْرَ
وَلِتُكْمِلُوا الْعِدَّةَ وَلِتُكَبِّرُوا اللَّـهَ عَلَىٰ مَا هَدَاكُمْ
وَلَعَلَّكُمْ تَشْكُرُونَ﴾ (سورة البقرة:
١٨٥)
अर्थ: तुम में से जो शख्स इस महीनें में अपनी जगह पर हो (यात्रा पर न हो) तो उसको चाहिए कि रोज़ा
रखे। और जो शख्स बीमार हो या फिर सफ़र में हो तो और दिनों में रोज़े की गिनती पूरी
करे। ख़ुदा तुम्हारे साथ आसानी करना चाहता है और तुम्हारे साथ सख्ती करनी नहीं
चाहता और (शुमार का हुक्म इस लिए दिया है) ताकि तुम (रोज़ो की) गिनती पूरी करो और
ताकि ख़ुदा ने जो तुम को राह पर लगा दिया है उस नेअमत पर उस की बड़ाई करो और ताकि
तुम शुक्र गुज़ार बनो। (सूरह अल-बक़रह: 185)
इसी प्रकार वह महिला जिसे जन्म काल का या मासिक धर्म रक्त चालू
है। वह भी इन दिनों में रोज़ा नहीं रखेगी। क्योंकि यह भी एक प्रकार की बीमारी है।
عن أبي سعيد رضي الله عنه قال قال النبي صلى الله عليه
وسلم: "أليس إذا حاضت لم تصل ولم تصم" (رواه البخاري)
अर्थ: हज़रत अबू सईद (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने कहा की: अल्लाह के
रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्ल्म) ने फ़रमाया: क्या ऐसा नहीं है कि जब (महिला को) धर्म
रक्त (मासिक हो या जन्म काल) आता है तो वह न नमाज़ पढ़ती है और न रोज़ा रखती है? (सहीह बुख़ारी) अर्थात बिलकुल ऐसा ही है।
छोटे बालक बालिका पर भी रोज़ा फ़र्ज़ नहीं है यदि आदत डालने के
लिए वह भी रखना चाहें तो अच्छा है इस का पुण्य भी मिलेगा।
عن عائشة
رضي الله عنها أن رسول الله صلى الله عليه وسلم قال: "رفع القلم عن ثلاثة عن
النائم حتى يستيقظ وعن المبتلى حتى يبرأ وعن الصبي حتى يكبر" (رواه أبو داوود والنسائي وابن ماجة وصححه
الألباني)
हज़रत आईशा (रज़ियल्लाहु अन्हा)
से रिवायत है की अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्ल्म) ने फ़रमाया: तीन प्रकार
के व्यक्तियों से क़लम उठा लिया गया है। (अर्थात उन के भूल चूक त्रुटि को लिखा नहीं
जाता) पहला सोया हुआ वयक्ति जब तक वह जाग न जाये। दूसरा जो बीमार है जब तक स्वस्थ न
हो जाये। और तीसरा नाबालिग बालक जब तक वह बालिग़ न हो जाये। (अबू दाऊद, नसाई, इब्न माजह, शैख़ अल्बानी ने
इस हदीस को सहीह (प्रमाणित) कहा है।
रोज़ा का उद्देश्य क्या है?
किसी भी पूजा अर्चना अथवा इबादत के अनेक कारण हो सकते हैं। जिन
को केवल एकमात्र अल्लाह सुब्हानहु व तआला ही जनता है।
अल्लाह सुब्हानहु व तआला ने इस जीवन में मनुष्य को कई कार्य
करने का आदेश दिया। उन में से कुछ तो ऐसे हैं जो कुछ लोगों को बोझ लगते हैं। आखिर अल्लाह
तआला कोई भी कार्य करने का आदेश देता ही क्यों है? क्या मनुष्य के उन कार्यों के करने से उसे कोई लाभ मिलता है? क्या मनुष्य के उन कार्यों की उसे कोई अव्यश्कता है? अथवा वह मनुष्य को थका कर प्रसन्न होता है? क्या मनुष्य
के उन कार्यों से उसे कोई ऊर्जा मिलती है?
इन में से कोई भी नहीं है। सत्य तो यह है की इन कार्यों की अव्यश्कता
सोयं मनुष्य को है। मैं यहां पर मात्र तीन बड़े उद्देश्यों का उल्लेख करना चाहूंगा।
१ - अल्लाह पर मेरा विश्वास है इस को ह्रदय से ग्रहण करने के
बाद मुंह से इस का कबूल क्या। पर अब भी प्रमाणित नहीं हुआ की जो ज़ुबान से बोल रहा हूँ
वही दिल में भी है या नहीं। जब उसी के आदेशानुसार कार्य क्या। तो यह प्रमाणित हो गया
की मैं उस को अपना रब मानता हूँ।
रोज़ा (व्रत) क्या है?
अल्लाह को प्रसन्न करने के लिए नियत कर के सुबह के आरम्भ से
लेकर सूरज डूबने तक खाने पिने इत्यादि रोज़ा तोड़ने वाले कामों से बचना रोज़ा कहलाता है।
यदि कोई अल्लाह की प्रसन्नता के अतिरिक्त किसी और उद्देश्य के
लिए रोज़ा रखे। जैसे की किसी को दिखाने या वाहवाही लेने के लिए तो उस को रोज़ा नहीं कहा जायेगा।
इसी प्रकार यदि कोई धार्मिक व्रत रोज़ा की नियत न कर के अपने काम काज के चलते या इलाज के उद्देश्य से दिन
भर भूका पियासा रहा। और सूरज डूबने के समय इफ्तारी करे तो उस को भी रोज़ा नहीं कहा जायेगा।
रोज़ा दिन को ही होता है अगर किसी ने रात को व्रत रख लिया या
रोज़ा तोड़ने वाले कार्य कर लय तो उस का रोज़ा टूट गया।
रोज़े में भूल चूक
सात प्रकार के कार्यों से ही रोज़ा टूटता है। परफ्यूम लगाने काजल
अथवा तेल प्रयोग करने नकसीर फूटने घाव से रक्त निकलने दातुन या टूथ ब्रश करने नहाने
सोने इत्यादि से रोज़ा को कुछ नहीं होता। और यह सात कार्य भी तीन शर्त न हो तो रोज़ा
को नहीं तोड़ सकते।
रोज़ा टूटने की तीन शर्तें
१ - ज्ञान होना: इन सात में से किसी का भी करने वाला यह ज्ञान
रखता हो। की इस्लाम में रोज़ा के दौरान यह कार्य वर्जित है। और ऐसा करने से रोज़ा टूट
जाता है। यदि इस का ज्ञान नहीं है। तो उस के करने से भी रोज़ा नहीं टूटेगा।
﴿وَلَيْسَ
عَلَيْكُمْ جُنَاحٌ فِيمَا أَخْطَأْتُم بِهِ وَلَـٰكِن مَّا تَعَمَّدَتْ
قُلُوبُكُمْ﴾ سورة
الأحزاب: 5
अर्थ: इस सिलसिले
में तुमसे जो ग़लती हुई हो उसमें तुमपर कोई गुनाह नहीं, किन्तु जिसका संकल्प तुम्हारे दिलों ने कर लिया, उसकी बात और है।
२ - याद होना: यदि किसी को ज्ञान तो है। परन्तु भूल गया की वह
रोज़े से है। या उस समय मनाही याद न आई तो भी रोज़ा सुरक्षित ही रहेगा।
عن أبي
هريرة رضي الله عنه قال قال رسول الله صلى الله عليه وسلم: "مَن نسِي وهو
صائم فأكَل أو شرِب، فليُتِمَّ صومه؛ فإنما أطعَمه الله وسقاه" متفق عليه
अर्थ: हज़रत अबू हुरैरह रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत है की नबी
सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया: जो वयक्ति रोज़े से है और वह भूल गया फिर खा पि
लिया। तो उसे उस रोज़ा को पूरा कर लेना चाहिए। क्योंकि उसे अल्लाह ने खिलाया पिलाया।
(बुख़ारि, मुस्लिम) अर्थात उस का रोज़ा नहीं टुटा।
३ - इच्छा शक्ति: कोई मजबूरी नहीं है। और उस के क्षमता के अंतर्गत
आता है। जैसे स्वप्नदोष में वीर्यपात होने से रोकना उस के क्षमता शक्ति में नहीं है।
इसी प्रकार यदि किसी रोज़ेदार ने अपनी जान बचाने के लिए यह कार्य कर लिया। जैसे की किसी
ने उस से कहा: यदि तुम यह खाना नहीं कहोगे तो मैं तुम्हारा बध कर दूंगा। तो इस से भी
रोज़ा नहीं टूटेगा।
﴿مَن
كَفَرَ بِاللَّـهِ مِن بَعْدِ إِيمَانِهِ إِلَّا مَنْ أُكْرِهَ وَقَلْبُهُ مُطْمَئِنٌّ بِالْإِيمَانِ
وَلَـٰكِن مَّن شَرَحَ بِالْكُفْرِ صَدْرًا فَعَلَيْهِمْ غَضَبٌ مِّنَ اللَّـهِ
وَلَهُمْ عَذَابٌ عَظِيمٌ﴾سورة النحل: ١٠٦
अर्थ: जिस किसी ने अपने ईमान के पश्चात अल्लाह के साथ
कुफ़्र किया -सिवाय उसके जो इसके लिए विवश कर दिया गया हो। और दिल उसका ईमान पर
सन्तुष्ट हो - बल्कि वह जिसने सीना कुफ़्र के लिए खोल दिया हो, तो ऐसे लोगो पर अल्लाह का प्रकोप है। और उनके लिए बड़ी यातना
है।
عن ابن عباس
رضي الله عنهما أن رسول الله صلى الله عليه وسلم قال: "إن الله تجاوز عن أمتي
الخطأ والنسيان وما استُكرهوا عليه" ابن ماجة والبيهقي
अर्थ: हज़रत इब्न अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हुमा से रिवायत है की
रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया: अल्लाह ने मेरी उम्मत से त्रुटि अज्ञानता
के कारण की गई ग़लती और भूल चूक एवं मजबूरी में कए गए कार्य को क्षमा प्रदान कर दिया
है। (इब्न माजह, बैहक़ी) अर्थात
उस का रोज़ा नहीं टूटेगा।
रोज़ा को तोड़ने वाले सात ७ कार्य
रोज़ा को तोड़ने वाले सात (७) कार्य निम्न प्रकार हैं:
१ - संभोग: इस्लामी दृष्टिकोण से संभोग हलाल तरीक़ा से पत्नी
के साथ हो या हराम तरीक़ा से रमज़ान महीने के दिनों में वर्जित है। और बिना मजबूरी जान बुझ कर याद रहते
हुए ऐसा करने वाले को कठोर दंड सुनाया गया है। इस से रोज़ा टूट जाता है। इस रोज़ा को
बाद में रखना ज़रूरी है। जबकि रोज़ा को तोड़ने और रमजान महीने की पवित्रता को भंग करने
के जुर्म में एक ग़ुलाम को खरीद कर आज़ाद करना, या इस की सम्भावना न होने पर लगातार दो
महीने बिना एक रोज़ भी गैप किये रोज़ा रखना अनिवार्य है। यदि इसकी भी क्षमता न हो तो
साठ (६०) ग़रीब को पेट भर भोजन कराना होगा। यह तीसरा और अंतिम विकल्प है।
عن أبي هريرة
رضي الله عنه قال بينما نحن جلوس عند النبي صلى الله عليه وسلم إذ جاءه رجل فقال
يا رسول الله هلكت قال ما لك قال وقعت على امرأتي وأنا صائم فقال رسول الله صلى
الله عليه وسلم هل تجد رقبة تعتقها قال لا قال فهل تستطيع أن تصوم شهرين متتابعين
قال لا فقال فهل تجد إطعام ستين مسكينا قال لا..." متفق عليه
अर्थ: हज़रत अबू हुरैरह रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत है कहते हैं
की हम लोग नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के पास बैठे हुए थे। की एक आदमी आया और कहा:
हे अल्लाह के रसूल! मैं नष्ट हो गया आप ने फ़रमाया: तुम्हें क्या हो गया? कहा: मैं ने रोज़े की हालत में मेरी पत्नी के साथ संभोग कर लिया।
तो रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया: क्या तुम एक गुलाम आज़ाद कर सकते
हो? उस ने कहा: नहीं! आप ने फ़रमाया: क्या तुम में लगातार दो महीने
तक रोज़ा रखने की क्षमता है? उस ने कहा: नहीं! आप ने फ़रमाया: क्या
तुम साठ ६० ग़रीब को भोजन करा सकते हो? ... (बुख़ारी व मुस्लिम(
हाँ। रमज़ान महीने की रातों में अल्लाह ने हलाल तरीक़ा से इस की
इजाज़त दी है। अल्लाह ने फ़रमाया:
﴿أُحِلَّ لَكُمْ لَيْلَةَ الصِّيَامِ الرَّفَثُ
إِلَىٰ نِسَائِكُمْ هُنَّ لِبَاسٌ لَّكُمْ وَأَنتُمْ لِبَاسٌ لَّهُنَّ عَلِمَ اللَّـهُ أَنَّكُمْ كُنتُمْ
تَخْتَانُونَ أَنفُسَكُمْ فَتَابَ عَلَيْكُمْ وَعَفَا عَنكُمْ فَالْآنَ
بَاشِرُوهُنَّ وَابْتَغُوا مَا كَتَبَ اللَّـهُ لَكُمْ﴾ سورة البقرة: ١٨٧
अर्थ: तुम्हारे लिए रोज़ो की रातों में अपनी औरतों के पास
जाना जायज़ (वैध) हुआ। वे तुम्हारे परिधान (लिबास) हैं और तुम उनका परिधान हो।
अल्लाह को मालूम हो गया कि तुम लोग अपने-आपसे कपट कर रहे थे, तो उसने तुमपर कृपा की और तुम्हें क्षमा कर दिया। तो अब तुम
उनसे मिलो-जुलो और अल्लाह ने जो कुछ तुम्हारे लिए लिख रखा है, उसे तलब करो। (सूरह अल-बक़रह: १८७)
२ - हस्तमैथुन अथवा किसी भी प्रकार
से जानबुझ कर याद रहते हुए यौन इच्छा से वीर्य निकलने का कारण बनना।
ﻋﻦ ﺃﺑﻲ
ﻫﺮﻳﺮﺓ رضي الله عنه ﺃﻥ ﺍﻟﻨﺒﻲ ﷺ ﻗﺎﻝ: "ﺇﺫﺍ ﻛﺎﻥ ﻳﻮﻡ ﺻﻮﻡ ﺃﺣﺪﻛﻢ ﻓﻼ ﻳﺮﻓﺚ ﻳﻮﻣﺌﺬ
ﻭﻻ ﻳﺼﺨﺐ" ﻣﺘﻔﻖ ﻋﻠﻴﻪ
अर्थ: हज़रत अबू हुरैरह रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत है की नबी
सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया: जब तुम में से किसी का रोज़े (उपवास) का दिन हो
तो न रफ़स (सेक्स से जुड़े मामलात - कामवासना) करे और
न चीखे चिल्लाए। (बुख़ारी व मुस्लिम(
इनकी ही एक और रिवायत में है की नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम
ने फ़रमाया: की अल्लाह तआला कहता है:
"يترك
طعامه وشرابه وشهوته من أجلي" متفق عليه
अर्थ: (मेरा बंदा रोज़े की अवस्था में) अपने खाने अपने पिने और
अपने सेक्स (कामवासना) को मेरे लिए त्याग देता
है। (बुख़ारी व मुस्लिम(
कारण जो भी हो आँखों से किसी को घूरना, फोटो या फिल्म देखना,
मुंह से बोलना, हाथों से चैटिंग करना, कानों से गाने सुन्ना, बदन के किसी अंग से सेक्सी
इशारे करना, दिमाग़ से ऐसी बातों को सोचना इत्यादि सब (रफस) में से हैं।
इसी प्रकार बीड़ी सिगरेट तम्बाकू गुल मंजन इत्यादि भी शहवत में
से हैं। इसलिए यह भी रोज़ा को तोड़ने वाले हैं। जबकि टूथ पेस्ट दातुन या महिलाओं की नाक
से चूल्हे का धुआं अंदर जाने से रोज़ा नहीं टूटता। क्यों की यह चाहत शहवत या कामवासना
के दृष्टिकोण से नहीं है।
३ - खाना पीना और जानबुझ कर याद रहते
हुए मुंह से या नाक द्वारा पेट तक भोजन या पानी पहुंचाना। मुंह से इस लिए की खाना उसी
को कहते हैं जो मुंह से पेट में डाला जाए। और अल्लाह तआला ने फ़रमाया:
﴿وَكُلُوا
وَاشْرَبُوا حَتَّىٰ يَتَبَيَّنَ لَكُمُ الْخَيْطُ الْأَبْيَضُ مِنَ الْخَيْطِ الْأَسْوَدِ مِنَ
الْفَجْرِ ثُمَّ أَتِمُّوا الصِّيَامَ إِلَى اللَّيْلِ﴾ سورة البقرة: ١٨٧
अर्थ: और खाओ और पियो यहाँ तक कि तुम्हें उषाकाल की सफ़ेद
धारी (रात की) काली धारी से स्पष्टा दिखाई दे जाए। फिर रात तक रोज़ा पूरा करो। (सूरह अल-बक़रह: १८७)
और नाक से इस लिए की नाक से भी पेट में भोजन पहुँचाया जा सकता
है। नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया:
عن لقيط بن
صبرة رضي الله عنه قال قال رسول الله صلى الله عليه وسلم: "أسبِغِ الوضوء وخلِّل بين الأصابع وبالِغ في
الاستنشاق إلا أن تكون صائمًا" (أخرجه الأربعة وصحَّحه ابن خزيمة)
अर्थ: और इस लिए भी की हज़रत लक़ीत बिन सबरह रज़ियल्लाहु अन्हु
से रिवायत है की नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया: वज़ू करते समय हर अंग तक अच्छी
तरह से पानी पहुंचाओ और उँगलियों के बिच रगड़ो और नाक के भीतर पानी खींचने में अतिशयोक्ति
अथवा ज़्यादती करो परन्तु उस समय नहीं (नाक के अंदर पानी चढ़ाने में ज़्यादती न करो) जब
तुम रोज़े से हो (अबू दाऊद, तिर्मिज़ी, नसाई,
इब्न माजह, और इब्न खुजैमह ने इस को (प्रमाणित)
सहीह कहा)
४ - खाने और पीने के अंतर्गत जो भी आता है। जिस से भूक और प्यास मिट जाये। कोई टेबलेट या इंजेक्शन
या किसी भी प्रकार की कोई वस्तु जो भूक और प्यास को कम कर दे। या फिर इलाज के लिए खून
चढ़ाना। क्योंकि खाने पिने का उद्देश्य और नतीजा खून ही है जिस से शक्ति मिलती है। इस
लिए शक्ति प्रदान करने वाली हर चीज़ खाने पिने में से ही मानी जाएगी।
५ - इलाज के लिए कपिंग (सिंघी लगवाना)
रक्त निकालना। क्योंकि इस से पूजा अर्चना इबादत अथवा उपासना ज़िक्र अज़कार तस्बीह तिलावत
तौबह इस्तिग़फ़ार नमाज़ इत्यादि जो की रोज़े में अधिक से अधिक होना चाहिए। इन सब में सुस्ती
आ जाएगी।
عن شداد بن
أوس رضي الله عنه أن النبي صلى الله عليه وسلم قال: "أفطر الحاجم والمحجوم" أحمد
وأبو داود والنسائي وابن ماجه والدارمي والطبراني وابن حبان والحاكم والبيهقي صححه
الألباني في صحيح أبي داود 2047
अर्थ: हज़रत शद्दाद बिन औस रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत है की
नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया: सिंघी लगाने वाला और लगवाने वाला दोनों का
रोज़ा टूट गया। (अहमद, अबू दाऊद, नसाई,
इब्न माजह, दारमी, तबरानी,
इब्न हिब्बान, हाकिम, बैहक़ी, सहीह अबी दाऊद २०४७ में शैख़ अल्बानी ने सहीह (प्रमाणित) कहा
है)
६ - जानबूझ कर उल्टी करना। क्योंकि
इस से भी दुर्बलता और कमज़ोरी आजाएगी और इबादत में सुस्ती होगी। परन्तु यदि खुद बखुद
उलटी हो जाए। तो रोज़े पर कोई असर नहीं पड़ेगा क्योंकि जिस पर मनुष्य को कंट्रोल न हो
उस पर वह मजबूर है।
أبي هريرة
رضي الله عنه أن النبي صلى الله عليه وسلم قال: "من استقاء عمداً فليقض ومن
ذرعه القيء فلا قضاء عليه" أبو داود والترمذي صححه الألباني في صحيح الترمذي
577
अर्थ: हज़रत अबू हुरैरह रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत है की नबी
सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया: जो वयक्ति (रोज़े की हालत में) जान बुझ कर उलटी
करे। उसे उस रोज़ा को क़ज़ा करना (दोबारा रखना) चाहिए। और जिस को खुद उलटी हो जाए उस पर क़ज़ा नहीं है। (अबू दाऊद, तिर्मिज़ी, सहीह तिर्मिज़ी ५७७ में शैख़ अल्बानी ने सहीह (प्रमाणित)
कहा है)
७ - महिलाओं के रक्त मासिक धर्म या
पुएरपेरियम (शिशु को जन्म देते समय या उस के बाद कुछ दिनों तक) से बाहर निकलता है।
क्योंकि एक तो यह बीमारी है। और रक्त निकालने जैसी दुर्बलता आजाती है। और अपवित्रता
भी है। इस लिए ऐसे में रोज़ा नहीं होगा। रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्ल्म ने फ़रमाया:
"أليس
إذا حاضت لم تصل ولم تصم" (رواه البخاري)
अर्थ: क्या ऐसा नहीं है कि जब (महिला को) धर्म रक्त (मासिक हो
या जन्म काल) आता है तो वह न नमाज़ पढ़ती है और न रोज़ा रखती है? (सहीह बुख़ारी) अर्थात बिलकुल ऐसा ही है।
रोज़ा वाजिब होने की तीन (३) शर्तें हैं:
१ - युवावस्था: नाबालिगों के लिए रोज़ा अनिवार्य नहीं है। जब
तक बच्चा बालिग़ नहीं हो जाता तब तक उस पर रोज़ा फ़र्ज़ नहीं है। लेकिन बच्चे को बचपन से
धीरे-धीरे रोज़ा रखवाना बेहतर होता है ताकि उसे प्रशिक्षित किया जा सके।
عن علي رضي
الله عنه أن رسول الله صلى الله عليه وسلم قال: "رفع القلم عن ثلاثة عن
النائم حتى يستيقظ وعن الصبي حتى يشب وعن المعتوه حتى يعقل" رواه الترمذي
وصححه الألباني.
अर्थ: हज़रत अली (रज़ियल्लाहु
अन्हु) से रिवायत है की अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्ल्म) ने फ़रमाया: तीन
प्रकार के व्यक्तियों से क़लम उठा लिया गया है। (अर्थात उन के भूल चूक त्रुटि को लिखा
नहीं जाता) सोये हुए वयक्ति से जब तक वह जाग न जाए। बालक से जब तक वह बालिग़ न हो जाए।
और दिमाग़ी संतुलन खो बैठे वयक्ति से जब तक उस का दिमाग़ी संतुलन ठीक न हो जाए। (तिर्मिज़ी, शैख़ अल्बानी ने इस हदीस को सहीह (प्रमाणित) कहा है।
२ - क्षमता: भूक प्यास और रोज़े की कठिनाई
सहन करने में सक्षम होना चाहिए तभी रोज़ा फ़र्ज़ होगा। छोटे बच्चे वयष्क बुज़ुर्ग अथवा
रोगी जो इस को सहन करने में सक्षम न हों उन पर रोज़ा फ़र्ज़ नहीं है।
﴿لَا يُكَلِّفُ اللَّـهُ نَفْسًا إِلَّا وُسْعَهَا﴾ سورة البقرة:
٢٨٦
अर्थ: अल्लाह किसी जीव पर
बस उसकी सामर्थ्य और समाई के अनुसार ही दायित्व का भार डालता है। (सूरह अल-बक़रह: २८६)
३ - निवासी: जो वयक्ति यात्रा पर हो
उस पर उस समय रोज़ा अनिवार्य नहीं है। यात्रा के दौरान कठिनाइयों को देखते हुए खाने
पिने की अनुमति है। बाद में वह उस को रख लेगा। परन्तु यदि कोई यात्रा के दौरान रख ले
तो उस का रोज़ा सहीह होगा।
﴿فَمَن كَانَ مِنكُم مَّرِيضًا أَوْ عَلَىٰ سَفَرٍ
فَعِدَّةٌ مِّنْ أَيَّامٍ أُخَرَ﴾ سورة البقرة: ١٨٤
अर्थ: तुममें कोई बीमार हो, या सफ़र में हो तो दूसरे दिनों में संख्या पूरी कर ले। (सूरह अल-बक़रह: १८४)
रोज़ा सहीह होने की तीन (३) शर्तें हैं:
१ - इरादा :ह्रदय में यह
सोच या इरादा होना कि मैं आज सुबह से सूर्य डूबने तक अल्लाह को प्रसन्न करने के लिए सात (७) प्रकार के रोज़ा (उपवास) तोड़ने वाले कार्य
से बचूंगा।
عن أمير
المؤمنين أبي حفص عمر بن الخطاب رضي الله عنه قال سمعت
رسول الله صلى الله عليه وسلم يقول: "إنما الأعمال بالنيّات ، وإنما لكل
امريء مانوى ، فمن كانت هجرته إلى الله ورسوله ، فهجرته إلى الله ورسوله ومن كانت
هجرته لدنيا يصيبها أو امرأة ينكحها فهجرته إلى ما هاجر إليه" متفق عليه
अर्थ: मुसलमानों के राजा हज़रत
अबू हफ़्स उमर बिन खत्ताब (रज़ियल्लाहु अन्हु) से रिवायत है। कहा की अल्लाह के रसूल
(सल्लल्लाहु अलैहि व सल्ल्म) को मैं ने फरमाते हुए सुना की: कार्यों का निर्भर नियत
और इरादे पर है। हर वयक्ति को उस के कार्य से वही मिलेगा जिस इरादे से उस ने वह कार्य
किया है। तो जिस ने हिजरत (आप्रवासन) किया अल्लाह और उस के रसूल के इरादे से, उस की
हिजरत अल्लाह और उस के रसूल के लिए हुई। और जिस ने हिजरत की दुनियादारी प्राप्त करने,
अथवा किसी महिला के लिए जिस से वह विवाह करना चाहता है, हिजरत की, तो उस की हिजरत उसी के लिए हुई जिस इरादे से उस ने
वह हिजरत की। (बुखारी व मुस्लिम)
२ - समझदारी: बालक जब तक अच्छे बुरे के बिच अंतर करने का योग्य
न हो जाये तब तक उस का रोज़ा सहीह नहीं होगा।
حديث علي
السابق "وعن المعتوه حتى يعقل"
अर्थ: हज़रत अली (रज़ियल्लाहु अन्हु) की हदीस जो इस से पूर्व गुज़र
चुकी है की: और दिमाग़ी संतुलन खो बैठे वयक्ति से जब तक उस का दिमाग़ी संतुलन ठीक न हो
जाए।
३ - रोज़ा के सठिक समय का पालन: रात को रोज़ा रखने से रोज़ा सहीह नहीं होता। न ही आधे दिन का रोज़ा
हो सकता है। इसी प्रकार जिस दिन रोज़ा रखना मना है जैसे ईद के दिन रोज़ा सहीह नहीं होगा।
रोज़ा का समय सुबह की अज़ान से ले कर सूर्य डूबने तक है इसी समय के अंदर उपवास रोज़ा कहलाता
है।
عن أبي
هريرة رضي الله عنه أن رسول الله صلى الله عليه وسلم نهى عن صيام يومين: يوم
الأضحى ويوم الفطر. رواه مسلم
अर्थ: हज़रत अबू हुरैरह रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत है की रसूलुल्लाह
सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने दो दिनों के रोज़े से मना फ़रमाया: क़ुरबानी (ईद) के दिन, और (ईद) फ़ित्र के दिन, (मुस्लिम)
रोज़ा सहीह होने और अनिवार्य होने की तीन (३) शर्तें हैं:
१ - इसलाम: इस्लाम धिर्म के अंदर होते हुए रोज़ा रखने से ही रोज़ा
सहीह होगा। अन्यथा ग़ैर मुस्लिम पर तो रोज़ा अनिवार्य ही नहीं है।
﴿وَلَقَدْ
أُوحِيَ إِلَيْكَ وَإِلَى الَّذِينَ مِن قَبْلِكَ لَئِنْ أَشْرَكْتَ لَيَحْبَطَنَّ عَمَلُكَ
وَلَتَكُونَنَّ مِنَ الْخَاسِرِينَ﴾سورة الزمر: ٦٥
अर्थ: तुम्हारी ओर और जो तुमसे पहले गुज़र चुके हैं उनकी ओर
भी वह्यस की जा चुकी है कि "यदि तुमने शिर्क किया तो तुम्हारा किया-धरा
अनिवार्यतः अकारथ जाएगा और तुम अवश्य ही घाटे में पड़नेवालों में से हो जाओगे। (सौराह अल-ज़ूमर: ६५)
२ - दिमाग़ी अवस्था ठीक होना: पागल दीवाना
या जिस का दिमाग़ी संतुलन ठीक नहीं है। उस पर न तो
रोज़ा अनिवार्य है न ही उस का रोज़ा सहीह होगा।
حديث علي
السابق "وعن المعتوه حتى يعقل"
अर्थ: हज़रत अली (रज़ियल्लाहु अन्हु) की हदीस जो इस से पूर्व गुज़र
चुकी है की: और दिमाग़ी संतुलन खो बैठे वयक्ति से जब तक उस का दिमाग़ी संतुलन ठीक न हो
जाए।
३ - महिलाओं का मासिक धर्म रक्त और शिशु जन्म काल के रक्त से
शुद्धता: इस अवस्था में रोज़ा अनिवार्य नहीं है। न ही रखने से रोज़ा होगा। रोज़ा के दौरान
यदि यह अवस्था उत्पन्न हो जाए तो वह रोज़ा भी टूट गया।
عن أبي سعيد رضي الله عنه قال قال النبي صلى الله عليه
وسلم: "أليس إذا حاضت لم تصل ولم تصم" (رواه البخاري)
अर्थ: हज़रत अबू सईद (रज़ियल्लाहु अन्हु) ने कहा की: नबी (सल्लल्लाहु
अलैहि व सल्ल्म) ने फ़रमाया: क्या ऐसा नहीं है कि जब (महिला को) धर्म रक्त (मासिक हो
या जन्म काल) आता है तो वह न नमाज़ पढ़ती है और न रोज़ा रखती है? (सहीह बुख़ारी) अर्थात बिलकुल ऐसा ही है।
रोज़ा की सुन्नतें चार (४) हैं:
१ - सेहरी में देरी करना: अर्थात सुबह की अज़ान से थोड़ी देर पहले
सेहरी खाना।
﴿وَكُلُوا وَاشْرَبُوا حَتَّىٰ يَتَبَيَّنَ
لَكُمُ الْخَيْطُ الْأَبْيَضُ مِنَ الْخَيْطِ الْأَسْوَدِ مِنَ الْفَجْرِ ثُمَّ
أَتِمُّوا الصِّيَامَ إِلَى اللَّيْلِ﴾ سورة البقرة: ١٨٧
अर्थ: और खाओ और पियो यहाँ तक कि तुम्हें उषाकाल की सफ़ेद
धारी (रात की) काली धारी से स्पष्टा दिखाई दे जाए। फिर रात तक रोज़ा पूरा करो। (सूरह
अल-बक़रह: १८७)
عن أنس عن
زيد بن ثابت رضي الله عنه قال تسحرنا مع النبي صلى الله عل يه وسلم ثم قام إلى
الصلاة قلت كم كان بينالأذان والسحور قال قدر خمسين آية" البخاري
अर्थ: हज़रत अनस (रज़ियल्लाहु
अन्हु) रिवायत करते हैं हज़रत ज़ैद बिन साबित (रज़ियल्लाहु अन्हु) से वह कहते हैं की हम
ने नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्ल्म के साथ सेहरी (भोर का भोजन) खाया, फिर आप सल्लल्लाहु
अलैहि व सल्ल्म नमाज़ के लिए खड़े हो गए। मैं ने कहा की अज़ान और सेहरी के बिच कितना (समय) था? तो बोले: पचास (५०) आयत (पढ़ने) के बराबर। (बुखारी)
२ - इफ्तारी में जल्दी करना: जैसे ही सूर्य दुब जाए बिना देरी
किए उसी छण इफ्तारी कर लेना।
عن سهل بن
سعد رضي الله عنه أن رسول الله صلى الله عليه وسلم قال: "لا يزال الناس بخير
ما عجلوا الفطر" متفق عليه
अर्थ: हज़रत सहल बिन सआद (रज़ियल्लाहु अन्हु) से रिवायत है की
अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्ल्म) ने फ़रमाया: उस समय तक लोग भलाई में रहेंगे
जब तक वह इफ्तारी (रोज़ा खोलने) में जल्दी करते रहेंगे (बखरी व मुस्लिम)
३ - शुभ कार्य: जो भी शुभ कार्य हैं दूसरे दिनों से अधिक रोज़े
में उन का ध्यान रखना चाहिए।
४ - हो सके तो खजूर से इफ्तारी करना नहीं तो ज़मज़म या सदा पानी
से भी इफ्तारी सहीह है।
लेखक
अब्दुल्लाह
अल्काफ़ी अलमुहम्मदी
धार्मिक शिक्षा व आमंत्रण गैर अरब समुदाय विभाग
सहकारी कार्यालय धार्मिक शिक्षा व मार्गदर्शन
प्रान्त तैमा, क्षेत्र तबूक, सऊदी अरब
दिनांक: ०१/ ०४/ १४३९ ह. दिन: बृहस्पतिवार
मुताबिक: १९/ १२/ २०१७ ई.